Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


मंझली रानी ः

(४)
छोटे राजा को मेरा गाना बहुत अच्छा लगता। वे बहुधा मुझसे गाने के लिए आग्रह करते । मुझे तो अब गाने-बजाने की ओर कोई विशेष रुचि रह नहीं गई थी; किंतु छोटे राजा के आग्रह से मैं अब भी कभी-कभी गा दिया करती थी। एक दिन की बात है। जाड़े के दिन थे किंतु आकाश बादलों से ढंका था। मैं अपने कमरे में बैठी एक मासिक पत्रिका के पन्‍ने उलट रही थी। इतने में छोटे राजा आए और मुझसे बोले, मंझली भाभी कुछ गाकर सुनाओ।

मैंने बहुत टाल-मटोल की, किंतु छोटे राजा न माने और उन्होंने बाजा उठाकर सामने रख ही दिया। मैंने हारमोनियम पर गीत गोविंद का यह पद छेड़ा-
"विहरत हरिरिह सरस बसन्ते ।"
नृत्यति युवति जनेन् समं सखि विरहि जनस्य दुरन्ते ।
ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे ।
मधुकर निकर करम्बित कोकिल कुजत कुंज कुटीरे ॥”

मास्टर बाबू भी, न जाने कैसे और कहाँ से, आए और पीछे चुपचाप खड़े हो गये । छोटे राजा की मुस्कुराहट से मैं भाँप गई; पीछे फिर कर जो उन्हें देखा तो हारमोनियम सरका कर मैं चुपचाप बैठ गई ।
वे भी हँसकर वहीं बैठ गये, बोले, “मंझली रानी ! आप इतना अच्छा गा सकती हैं, मैंने आज ही जाना ।
छोटे राजा-अच्छा न गाती होतीं तो क्या मैं मूर्ख था, जो इनके गाने के पीछे अपना समय नष्ट करता ?

इधर यह बातें हो ही रहीं थीं कि दूसरी तरफ से पैर पटकती हुई बड़ी रानी कमरे में आईं, क्रोध से बोलीं- यह घर तो अब भले आदमी का घर कहने लायक रह ही नहीं गया है । लाज-शरम तो सब जैसे धो के पी लो हो । बाप रे बाप ! हद हो गई। जैसे हल्के घर की है, वैसी ही हल्की बातें यहाँ भी करती है । पास-पड़ोस वाले सुनते होंगे तो क्या कहते होंगे ? यही न, कि मंझले राजा की रानी रंडियों की तरह गा रही हैं। बाबा ! इस कुल में तो ऐसा कभी नहीं हुआ। कुल को तो न लजवाओ देवी ! बाप के घर जाना तो भीतर क्या चाहे सड़क पर गाती फिरना । किन्तु यहाँ यह सब न होने पावेगा। तुम्हें क्या ? घर के भीतर बैठी-बैठी चाहे जो कुछ करो, वहाँ आदमियों की तो नाक कटती है।
एक सांस में इतनी सब बातें कहके बड़ी रानी चली गईं ।
मैंने सोचा, शराब पीकर रंडियों की बाँह में बाँह डाल कर टहलने में नाक नहीं कटती । ग़रीबों पर मनमाने जुल्म करने पर नाक नहीं कटती । नाक कटती है मेरे गाने से, सो अब मैं बाजे को कभी हाथ ही न लगऊँगी । उस दिन से फिर मैंने बाजे को कभी नहीं छुआ; और न छोटे राजा ने ही कभी मुझसे गाने का आग्रह किया। यदि वे आग्रह करते, तब भी मुझ में बाजा छूने का साहस न था।
इस घटना के कई दिन बाद एक दिन मास्टर बाबू छोटे राजा को पढ़ा कर ऊपर से नीचे उतर रहे थे, और मैं नीचे से ऊपर जा रही थी। आखिरी सीढ़ी पर ही मेरी उनसे भेंट हो गई; वे ठिठक गये, बोले-
'कैसी हो मंझली रानी ?'
'जीती हूँ।'
'खुश रहा करो; इस प्रकार रहने से आखिर कुछ लाभ ?'
'जी को कैसे समझाऊँ, मास्टर बाबू ?'
‘अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ा करो; उनसे अच्छा साथी संसार में तुम्हें कोई न मिलेगा।'
‘पर मैं अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाऊं कहाँ से ?'
'लाने का जिम्मा मेरा !'
'यदि आप अच्छी पुस्तकें ला दिया करें तो इससे अच्छी और बात ही क्या हो सकती है ?'
'यह कौन बड़ी बात है मंझली रानी ! मेरे पास बहुत- सी पुस्तकें रखी हैं। उनमें से कुछ मैं तुम्हें ला दूंगा ।'

इस कृपा के लिये उन्हें धन्यवाद देती हुई मैं ऊपर चली और वे बाहर चले गये। मैंने ऊपर आँख उठा कर देखा तो बड़ी रानी खड़ी हुई, तीव्र दृष्टि से मेरी ओर देख रही थीं। मैं कुछ भी न बोलकर नीची निगाह किए हुए अपने कमरे में चली गई।

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